ऐतिहासिक तालाबों से सीखने का समय
© उमेश यादव
कूड़न, बुढ़ान, सरमन और कौंराई चार भाई थे। चारों सुबह खेत में काम करने जाते थे। दोपहर को कूड़न की बेटी खाना लेकर आती थी। एक दिन घर से खेत जाते समय बेटी को नुकीले पत्थर से ठोकर लग गई। उसे बहुत गुस्सा आया। उसने अपनी दरांती से वह पत्थर उखाड़ने की कोशिश की। पत्थर पर पड़ते ही लोहे की दरांती सोने में बदल गई। पत्थर उठाकर लड़की भागी-भागी खेत पर आई। पिता और चाचाओं को घटना के बारे में बताया। जल्दी-जल्दी सब घर लौटे। वे समझ चुके थे कि उनके हाथ में कोई साधारण पत्थर नहीं, पारस है। पारस के स्पर्श से लोहे की वस्तुएं सोने में बदल जाती हैं। कूड़न जानता था कि देर-सबेर राजा तक बात पहुंचेगी। तब पारस उसके परिवार से छिन जाएगा। किस्सा आगे बढ़ता है। आगे जो कुछ घटता है, वह लोहे को नहीं बल्कि समाज को पारस से छुआने का किस्सा बन जाता है। राजा न पारस लेता है, न सोना। सबकुछ कूड़न को लौटाते हुए कहता है- जाओ, इससे अच्छे-अच्छे काम करते जाना, तालाब बनाते जाना। कोई नहीं जानता कि यह कहानी कितनी ऐतिहासिक और सच्ची है, लेकिन मध्य भारत में आज भी प्रचलित है। पर्यावरणविद अनुपम मिश्र की पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' में इसका उल्लेख है।
अनुपम मिश्र ने लिखा था- 'कूड़न, बुढ़ान, सरमन और कौंराई भाइयों की कहानी मध्य भारत के बहुत बड़े हिस्से में इतिहास को अंगूठा दिखाती हुई लोगों के मन में रमी हुई है। यहीं के पाटन क्षेत्र में चार बहुत बड़े तालाब आज भी मिलते हैं। ये तालाब चारों भाइयों के नाम पर हैं। बुढ़ागर में बूढा सागर, मझगवां में सरमन सागर, कुआंग्राम में कौंराई सागर एवं कुंडम गांव में कुंडम सागर।' संभवत: कूड़न का अपभ्रंश ही कुंडम रहा होगा। मिश्र ने शोध के आधार पर यह दावा भी किया था कि 20वीं सदी के आरंभ तक देश में लगभग 12 लाख तालाब थे। वे आषाण से भादो तक जल से भर जाते थे। ये तालाब जेठ महीने तक लोगों को जल उपलब्ध कराते थे। वास्तव में भारत में तालाब जल संपदा के गौरवपूर्ण इतिहास के भागीदार हैं। लाखों तालाब अचानक नहीं प्रकट हुए थे। इनके निर्माण के पीछे कई हाथ थे। ये हाथ साधारण ग्रामीण से लेकर असाधारण साधुओं के थे। विधवा महिलाओं ने भी तालाबों के निर्माण में योगदान दिया था। गांवों की जीवनरेखा इन तालाबों से होकर गुजरती थी। आज देश के कई पुराने तालाब जर्जर अवस्था में पहुंच चुके हैं। इस दौर में ऐतिहासिक तालाबों के निर्माण की इंजीनियरिंग बहुत काम आ सकती है।
इस साल नागपुर ने भीषण बारिश और बाढ़ का सामना किया। महाराष्ट्र सरकार ने प्राकृतिक आपदा से सबक लिया। सरकार ने नागपुर शहर के अंबाझरी तालाब की मजबूती के लिए 32.42 करोड़ रुपए मंजूर किए हैं। भारी बारिश में अंबाझरी तालाब का खूब नुकसान हुआ था। अब डेढ़ सौ साल पुराने अंबाझरी तालाब की जर्जर दीवारों की कांक्रीटिंग की जाएगी। मजबूती और सुरक्षा के लिए अन्य जरूरी कार्य किए जाएंगे। दूसरी ओर तालाबों से जुड़ा एक अन्य समाचार चिंताजनक है। नागपुर जिला परिषद के स्वामित्व वाले 470 तालाब थे। संबंधित सात बारा (भूमि रिकॉर्ड) के अनुसार उक्त तालाबों में से 33 पर जिला परिषद का अधिकार नहीं रहा है। इन तालाबों पर विभिन्न लोगों ने कब्जा कर लिया है। यह बात सामने आने पर जिला परिषद का लघु सिंचाई विभाग हैरान है। उसने तालाबों को वापस लेने की कवायद शुरू कर दी है। इससे पहले गोसी खुर्द बांध बनने के कारण जिला परिषद के 28 तालाब हाथ से निकल गए थे। इनमें से दो तालाब भंडारा जिले की सीमा एवं 26 तालाब वन विभाग के अधिकार में चले गए थे। इस तरह अब तक 61 तालाब नागपुर की जिला परिषद के हाथ से निकल चुके हैं। किसी समय नागपुर का लेंडी तालाब 27 एकड़ में फैला था। अब वह सिर्फ 6.5 एकड़ में सिमटकर रह गया है। केंद्र सरकार ने पिछले साल अमृत 2.0 अभियान में लेंडी तालाब को शामिल किया था। इसके लिए 14.13 करोड़ रुपए मंजूर किए थे। इसके बावजूद लेंडी तालाब का उद्धार नहीं हुआ। यह तालाब अतिक्रमण और भारी प्रदूषण का शिकार है। वहीं, पांढराबोडी और बिनाकी मंगलवारी तालाबों का अस्तित्व कागजों पर ही दिखता है।
विचार करें-आधुनिक इंजीनियरिंग के दौर में नए तालाबों का निर्माण न के बराबर है। हमारे पूर्वजों ने कई तालाबों को अपने ज्ञान व परिश्रम और अपनी कुशलता एवं एकजुटता से बनाया था। इन तालाबों का अस्तित्व खत्म हो रहा है। तालाबों पर मंथन इसलिए जरूरी है क्योंकि अभी शीत ऋतु चल रही है। इसके बावजूद जल संकट के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। इस साल पानी की कमी के कारण मराठवाड़ा में रबी फसल की बुआई अत्यंत कम हुई है। पूरे प्रदेश में अब तक रबी की फसल की केवल 19 प्रतिशत बुआई हो सकी है। नागपुर जिले में 4 प्रतिशत बुआई हुई है। राज्य के कई हिस्सों में खरीफ मौसम (जुलाई-अगस्त) के दौरान सूखा पड़ा था। इससे सोयाबीन, कपास आदि फसलों की बुआई प्रभावित हुई थी। रबी मौसम में भी वही स्थिति है। ग्रामीण क्षेत्रों में तालाबों का निर्माण कर खेतों को पानी दिया जा सकता है। मराठवाड़ा का सबसे बड़ा जलाशय जायकवाड़ी है। वहां पिछले साल के 100 प्रतिशत की तुलना में इस बार केवल 47.15 प्रतिशत पानी है। कम बारिश के कारण यह स्थिति है। मराठवाड़ा में हर साल जल संकट विकराल रूप ले लेता है। टैंकरों से जलापूर्ति करनी पड़ती है। इस बार राज्य सरकार ने मराठवाड़ा, उत्तर महाराष्ट्र एवं पश्चिम महाराष्ट्र के नौ जिलों में टैंकरों से जलापूर्ति के लिए 19.74 करोड़ रुपए मंजूर किए हैं। वैसे यह कोई स्थायी समाधान नहीं है। तालाबों का निर्माण स्थायी समाधान हो सकता है। क्या आधुनिक सरकारें और प्रशासन यह उपाय अपनाएंगे?
(लेखक 'सुनो सुनो' के संपादक हैं।)
('राष्ट्र पत्रिका' में भी प्रकाशित)
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