शिक्षा का फलता-फूलता अवैध कारोबार
© उमेश यादव
प्राचीनकाल में गुरुकुल परंपरा थी। राजा अपनी संतानों की शिक्षा-दीक्षा के बदले गुरु को दक्षिणा देते थे। आमतौर पर यह दक्षिणा धन-संपदा के रूप में होती थी। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार द्रोणाचार्य ने वंचित जाति के एकलव्य को शिक्षा देने से इनकार कर दिया था। एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाई। द्रोणाचार्य को गुरु मानकर मूर्ति के सामने अभ्यास किया। एकलव्य का धनुर्ज्ञान देखकर द्रोणाचार्य को प्रिय शिष्य अर्जुन की चिंता हुई। द्रोणाचार्य ने गुरुदक्षिणा में एकलव्य से उसका अंगूठा ले लिया। पौराणिक इतिहास में यह सबसे बड़ी गुरु दक्षिणा मानी जाती है। गुरु विष्णुगुप्त चाणक्य ने साधारण बालक चंद्रगुप्त को ऐसी शिक्षा दी कि वह राजा बना। भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन की जयंती पर देश शिक्षक दिवस मनाता है। ग्यारवें राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम खुद को महामहिम के बजाय प्रोफेसर कलाम कहलवाना पसंद करते थे। हमारी संस्कृति में गुरु का गुणगान है। कबीर ने कहा था- 'गुरु के चरणों में पहले शीश झुकाना उत्तम है, जिनकी कृपा से गोविंद (भगवान) के दर्शन का सौभाग्य मिलता है। विचार कीजिए कि आज गुरु की क्या दशा है?
महाराष्ट्र के स्कूल शिक्षा मंत्री दीपक केसरकर बीड़ में मीडिया से बात कर रहे थे। एक महिला अभ्यर्थी वहां पहुंची। अभ्यर्थी ने केसरकर से पूछा- 'आखिर हम लोग शिक्षक भर्ती के लिए कितना इंतजार करें?' जवाब में केसरकर ने कहा कि शिक्षक भर्ती के लिए वेबसाइट शुरू कर दी गई है। इस पर महिला अभ्यर्थी ने कहा कि हमने वेबसाइट पर पंजीयन किया है। भर्ती प्रक्रिया पूरी होने के लिए कितने दिन इंतजार करें? इस पर केसरकर ने कहा, 'यदि भर्ती प्रक्रिया चल रही है तो आपको श्रद्धा और सबूरी रखना चाहिए। अनुशासनहीन लोग सरकारी नौकर बनने के लायक नहीं होते। मैं मीडिया को इंटरव्यू दे रहा हूं। इस बीच आप मुझसे सवाल कर रही हैं? आप इंटरव्यू के बाद मुझसे मिल सकती थीं। आप लोग याद रखिए। मैं जितना विन्रम हूं, उतना ही सख्त भी हूं। मेरे लिए विद्यार्थी महत्वपूर्ण हैं। शिक्षक बनने के बाद आप बच्चों को इस तरह से अनुशासनहीनता का पाठ पढ़ाएंगी? यह मुझे स्वीकार नहीं हैं। बीच में मत बोलिए, अन्यथा मैं आपको अयोग्य घोषित कर दूंगा।' इस घटना पर पहली नजर में यह समझ आता है कि अभ्यर्थी और मंत्री दोनों ने धैर्य खोया। दोनों के धैर्य खोने के अपने कारण हैं। अभ्यर्थी लंबे समय से अपनी भर्ती का इंतजार कर रही होंगी। मंत्री भी मीडिया के सामने अचानक सवाल पूछने से असहज हो गए होंगे। असल में, बड़ा मुद्दा यह नहीं है कि किसने किसका अपमान किया। किसने धैर्य खोया। असली बात आगे है।
उक्त घटना के कारण विपक्ष को सरकार को घेरने का अवसर मिल गया। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष विजय वडेट्टीवार ने कहा कि स्कूल शिक्षा मंत्री की भाषा को पूरे महाराष्ट्र ने देखा है। शिक्षा मंत्री बॉस जैसा व्यवहार कर रहे हैं। कोई भी अभ्यर्थी यह बर्दाश्त नहीं करेगा। राकांपा (शरद) की सांसद सुप्रिया सुले ने कहा कि शिक्षा मंत्री को आखिर क्या हो गया है? वे सार्वजनिक रूप से धमकी दे रहे हैं। क्या मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और दोनों उपमुख्यमंत्री (भाजपा के देवेंद्र फडणवीस और राकांपा (अजित) के अजित पवार ) भी केसरकर की भूमिका से सहमत हैं ? शिक्षा मंत्री को आखिर किस बात का डर है? जवाब में केसरकर ने कहा कि उन्हें सुप्रिया से ऐसे बयान की अपेक्षा नहीं थी। सुप्रिया खुद शिक्षण संस्थाएं चलाती हैं। अगर उनकी शिक्षण संस्था में कोई शिक्षक अनुशासनहीनता करे तो क्या वे बर्दाश्त करेंगी? दरअसल, महाराष्ट्र में सुप्रिया ही नहीं, लगभग हर राजनीतिक दल से संबद्ध छोटे-बड़े नेताओं की शिक्षण संस्थाएं हैं। आमतौर पर अन्य निजी शिक्षण संस्थाओं में भी परोक्ष रूप से राजनेताओं की भागीदारी रहती है। राज्य के शहरों, कस्बों से लेकर गांवों तक में ऐसे स्कूल-कॉलेज मिल जाएंगे।
स्कूल-कॉलेज खोलना आम व्यक्ति के वश की बात नहीं है। इसके लिए भव्य इमारत, उत्कृष्ट प्रयोगशाला, ग्रंथालय, खेल का मैदान एवं अन्य सुविधाओं की जरूरत होती है। जहां अधिक वेतन दिया जाता है, वहां नौकरी के लिए अधिक शिक्षक उमड़ पड़ते हैं। महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में अनुदानित एवं आंशिक अनुदानित निजी शिक्षण संस्थाएं हैं। यहां कार्यरत शिक्षकों का वेतन सरकार भेजती है। इसलिए कई शिक्षण संस्थाएं अपने यहां शिक्षकों की भर्ती के लिए दान (डोनेशन) के नाम पर रिश्वत लेती हैं। करीब 50 हजार की वेतन वाली नौकरी के लिए 30-35 लाख रुपए तक वसूलती हैं। बरसों पहले किसी सरकार ने सोचा होगा कि शिक्षण सम्मानजनक कर्म है। इसलिए शिक्षकों को सम्मानजनक वेतन दिया जाना चाहिए। इसलिए निजी अनुदानित स्कूल-कॉलेजों को आर्थिक सहायता की शुरुआत की गई। इस बात को शिक्षा माफिया (व्यवस्था) ने धंधा बना लिया। कहना न होगा कि महाराष्ट्र में शिक्षा माफिया भीतर तक हावी है। कोई इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाता। न राजनेता, न आम जनता। राजनेता इसलिए चुप हैं क्योंकि उनकी अपनी शिक्षण संस्थाओं में यह काला कारोबार हो रहा है। आम लोग इसलिए चुप हैं क्योंकि उन्होंने रिश्वत को दान मान लिया है। यह हमारे संस्कारों का संक्रमण काल है। राज्य में ऐसे शिक्षक मिल जाएंगे, जो अनुदानित वेतन का इंतजार 14-14 वर्षों से कर रहे हैं। वे पहले ही संबंधित संस्था को दान रूपी रिश्वत का बड़ा हिस्सा दे चुके हैं। संभव है, इस व्यवस्था में ईमानदार शिक्षक धैर्य खो देगा। वह जिम्मेदार लोगों से सबके सामने सवाल करेगा। जैसा कि उस महिला अभ्यर्थी ने किया।
(लेखक 'सुनो सुनो' के संपादक हैं।)
('राष्ट्र पत्रिका' में भी प्रकाशित)
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