माननीय बनने की लागत कितनी?


© उमेश यादव

सुप्रीम कोर्ट चुनावी बॉन्ड योजना की कानूनी वैधता से जुड़े मामले की सुनवाई कर रही है। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आठ साल से लंबित है। राजनीतिक दल चाहते होंगे कि कोर्ट इस मामले पर जल्द फैसला सुनाए। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। अगले साल लोकसभा चुनाव होंगे। विधानसभा चुनावों पर नहीं, लेकिन लोकसभा चुनाव पर कोर्ट का फैसला बड़ा प्रभाव डाल सकता है। देश के अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी का कहना है कि यह योजना राजनीतिक चंदे में साफ धन के इस्तेमाल को बढ़ावा देती है। नागरिकों को 'कुछ भी और सब कुछ जानने' का सामान्य अधिकार नहीं हो सकता। दरअसल, एक वर्ग यह मांग करता आया है कि राजनीतिक दलों को प्राप्त हुए चंदे का विवरण सार्वजनिक करना चाहिए। उन्हें बताना चाहिए कि चंदा कहां से मिला। चुनावी बॉन्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने का वित्तीय माध्यम है। यह एक वचनपत्र की तरह है, जिसे भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खरीदा जा सकता है। खरीदार भारतीय नागरिक या कंपनी होना चाहिए। वह किसी भी राजनीतिक दल को गुमनाम तरीके से दान कर सकता है। विचार करें कि क्या यह व्यवस्था चुनावी चंदे में पारदर्शिता बनाए रख सकती है?

भारत सरकार ने चुनावी बॉन्ड योजना की घोषणा 2017 में की थी। इसे 2018 में लागू किया था। चुनावी बॉन्ड में भुगतानकर्ता का नाम नहीं होता है। भारतीय स्टेट बैंक राजनीतिक दलों को धन देने के लिए बॉन्ड जारी कर सकता है। यह बॉन्ड वह व्यक्ति खरीद सकता है, जिसके बैंक खाते का केवाईसी हो चुका हो। ये बॉन्ड 1,000 रुपए, 10,000 रुपए, एक लाख रुपए, दस लाख रुपए और एक करोड़ रुपए के हो सकते हैं। इसकी अवधि केवल 15 दिनों की होती है। इसका इस्तेमाल केवल पंजीकृत राजनीतिक दलों को दान के लिए किया जा सकता है। केवल उन्हीं राजनीतिक दलों को इसके जरिए चंदा दिया जा सकता है, जिन्होंने लोकसभा या विधानसभा के पिछले चुनाव में कुल मतदान का कम से कम एक प्रतिशत वोट हासिल किया हो। ये बॉन्ड जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में 10-10 दिन जारी किए जाते हैं।  इन्हें लोकसभा चुनाव के वर्ष में केंद्र सरकार की ओर से अधिसूचित 30 दिनों की अतिरिक्त अवधि के दौरान भी जारी किया जा सकता है। यही कारण है कि अगले साल चुनावी बॉन्ड बहुत महत्वपूर्ण रहेंगे। इसलिए राजनीतिक दल चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट यह साल समाप्त होने से पूर्व फैसला सुना दे।

सरकार ने दावा किया था कि चुनावी बॉन्ड देश में राजनीतिक फंडिंग की व्यवस्था को स्पष्ट करेगा। सवाल है कि क्या ऐसे बॉन्ड से काले धन को बढ़ावा नहीं मिल रहा है? क्या इससे राजनीतिक दलों के लिए गुमनाम फंडिंग के द्वार नहीं खुल गए हैं। क्या यह व्यवस्था चुनावी भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं दे रही है? दरअसल, यह योजना एक नागरिक के 'जानने के अधिकार' का उल्लंघन करती है। मतदाता को यह जानने का अधिकार होना चाहिए कि वह जिस दल को वोट दे रहा है, उसे कहां से धन प्राप्त होता है? आखिर हर उम्मीदवार चुनाव नामांकन-पत्र में अपनी आय का हिसाब देता है। चुनाव प्रचार में बड़े राजनीतिक दल जमकर धन फूंकते हैं। वे अपने उम्मीदवारों को प्रचार-तंत्र की विभिन्न सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं। निश्चय ही ये सुविधाएं चुनावी बॉन्ड से प्राप्त निधि से उपलब्ध कराई जाती हैं। हालांकि, चुनाव खर्च की सीमा तय है। इसके बावजूद छोटे दलों के या निर्दलीय उम्मीदवार प्राय: खर्च के मामले में बड़े दलों से पीछे रह जाते हैं।  चुनाव निगरानी संस्था एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016-17 और 2021-22 के बीच पांच वर्षों में कुल सात राष्ट्रीय दलों और 24 क्षेत्रीय दलों को चुनावी बॉन्ड से कुल 9,188 करोड़ रुपए मिले। इस 9,188 करोड़ रुपए में से अकेले भाजपा की हिस्सेदारी लगभग 5272 करोड़ रुपए थी। इसका अर्थ यह है कि कुल चुनावी बॉन्ड के जरिए दिए गए चंदे का करीब 58 फीसदी भाजपा को मिला। इसी अवधि में कांग्रेस को चुनावी बॉन्ड से करीब 952 करोड़ रुपए मिले। तीसरे नंबर पर तृणमूल कांग्रेस को 767 करोड़ रुपए मिले।

साधारण से ग्राम पंचायत चुनाव में विभिन्न दलों से समर्थित पैनल लाखों रुपए खर्च कर देते हैं। इसमें उम्मीदवारों की मकान-संपत्ति के टैक्स का भुगतान भी शामिल है। इस भुगतान के बिना चुनाव नहीं लड़ा जा सकता। चुनाव प्रचार कार्यकर्ताओं और समर्थकों के खाने-पीने की पार्टी रोज होती ही है। सोचिए- विधानसभा और लोकसभा चुनाव में क्या होगा? विधायक और सांसद यानी माननीय बनने की औसतन लागत कितनी होती है? लोकसभा चुनाव लड़ चुके एक उम्मीदवार का कहना है कि उन्हें पार्टी ने चुनाव टिकट दिया था। हालांकि, पार्टी चुनाव प्रचार का खर्च नहीं देना चाहती थी। पार्टी मानती थी कि वह उस सीट पर मजबूत नहीं है, जहां से उसका उम्मीदवार चुनाव लड़ रहा है। वहां से उम्मीदवार का जीतना बेहद कठिन है। उम्मीदवार ने विशेषज्ञ से सलाह ली। विशेषज्ञ ने कहा कि चुनाव प्रचार पर हर दिन 75 हजार रुपए खर्च होंगे। उम्मीदवार इतनी धनराशि खर्च करने में असमर्थ था। आखिर में उसके साथ प्रचार के लिए 8-10 साथी ही रह गए। हालांकि, कुछ उम्मीदवार अपवाद भी होते हैं। वे बिना धनबल के चुनाव जीतते हैं। अब ऐसे उम्मीदवारों की संख्या कम हो रही है। नागपुर में उपेंद्र शेंडे को साथियों ने चुनाव में खड़ा किया। तब शेंडे की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। साथियों ने ही चुनाव जमानत राशि भरी। एक समर्थक अपनी दुकान में शेंडे के प्रचार कार्यकर्ताओं को चाय पिलाता था। वह शेंडे से कहता था- चुनाव जीतने पर उधार चुका देना। न जीतने पर भुगतान करने की जरूरत नहीं। शेंडे चुनाव जीते। कुछ साल नागपुर की राजनीति में छाये रहे। उसके बाद गुमनाम हो गए। वैसे चुनावी चंदा केवल बॉन्ड तक सीमित नहीं है। पार्टी अपने जिला अध्यक्षों को चंदा जुटाने का लक्ष्य देती है। मंत्री अपने कनिष्ठ साथियों को चुनाव लड़ने के लिए धन जुटाने का रास्ता बताते हैं।

(लेखक 'सुनो सुनो' के संपादक हैं।)

('राष्ट्र पत्रिका' में भी प्रकाशित)

*****





टिप्पणियाँ

सबसे ज्यादा लोकप्रिय

रामटेक से महायुति के उम्मीदवार आशीष जैस्वाल जीते

नागपुर : स्कूल बस पलटी, छात्रा की मौत, कई विद्यार्थी घायल

सावनेर से महायुति के उम्मीदवार आशीष देशमुख जीते

कामठी से महायुति के उम्मीदवार चंद्रशेखर बावनकुले जीते

महाराष्ट्र : शिंदे ने कहा- मोदी जिसे मुख्यमंत्री बना दें, हमारी तरफ से कोई अड़ंगा नहीं...

जिला परिषद पर सरकार के 65.26 करोड़ बकाया : यादव