भगत सिंह की जयंती पर विशेष.... भावना कभी नहीं मरती
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भगत सिंह (जन्म : 28 सितंबर 1907, सर्वोच्च बलिदान : 23 मार्च 1931) |
वह जुलाई, 1930 का अंतिम रविवार था। भगत सिंह लाहौर सेंट्रल जेल से हमें मिलने के लिए बोस्टल जेल आए थे। वे इस तर्क पर सरकार से यह सुविधा हासिल करने में कामयाब हो गए थे कि उन्हें दूसरे अभियुक्तों के साथ बचाव के तरीकों पर बातचीत करनी है। तो उस दिन हम किसी राजनीतिक विषय पर बहस कर रहे थे कि बातों का रुख फैसले की तरफ मुड़ गया, जिसका हम सबको बेसब्री से इंतजार था। मजाक-मजाक में हम एक-दूसरे के खिलाफ फैसले सुनाने लगे, सिर्फ राजगुरु और भगत सिंह को इन फैसलों से बरी रखा गया। हम जानते थे कि उन्हें फाँसी पर लटकाया जाएगा।
'और राजगुरु और मेरा फैसला? क्या आप लोग हमें बरी कर रहे हैं?' मुस्कराते हुए भगत सिंह ने पूछा।
किसी ने कोई जवाब नहीं दिया ।
'असलियत को स्वीकार करते डर लगता है?' धीमे स्वर में उन्होंने पूछा। चुप्पी छाई रही। हमारी चुप्पी पर उन्होंने ठहाका लगाया और बोले, 'हमें गर्दन से फांसी के फंदे से तब तक लटकाया जाए जब तक कि हम मर न जाएं। यह है असलियत। मैं इसे जानता हूं। तुम भी जानते हो। फिर इसकी तरफ से आंखें क्यों बंद करते हो?'
अब तक भगत सिंह अपने रंग में आ चुके थे। वे बहुत धीमे स्वर में बोल रहे थे। यही उनका तरीका था। सुननेवालों को लगता था कि वे उन्हें फुसलाने की कोशिश कर रहे हैं। चिल्लाकर बोलना उनकी आदत नहीं थी। यही शायद उनकी शक्ति भी थी।
वे अपने स्वाभाविक अंदाज में बोलते रहे, 'देशभक्ति के लिए यह सर्वोच्च पुरस्कार है, और मुझे गर्व है कि मैं यह पुरस्कार पाने जा रहा हूं। वे सोचते हैं कि मेरे पार्थिव शरीर को नष्ट करके वे इस देश में सुरक्षित रह जाएंगे। यह उनकी भूल है। वे मुझे मार सकते हैं, लेकिन मेरे विचारों को नहीं मार सकते। वे मेरे शरीर को कुचल सकते हैं, लेकिन मेरी भावनाओं को नहीं कुचल सकेंगे। ब्रिटिश हुकूमत के सिर पर मेरे विचार उस समय तक एक अभिशाप की तरह मंडराते रहेंगे, जब तक वे यहाँ से भागने के लिए मजबूर न हो जाएं।”
भगत सिंह पूरे आवेश में बोल रहे थे। कुछ समय के लिए हम लोग भूल गए कि जो आदमी हमारे सामने बैठा है, वह हमारा सहयोगी है। वे बोलते जा रहे थे: 'लेकिन यह तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है। दूसरा पहलू भी उतना ही उज्ज्वल है। ब्रिटिश हुकूमत के लिए मरा हुआ भगत सिंह जीवित भगत सिंह से ज्यादा खतरनाक होगा। मुझे फांसी हो जाने के बाद मेरे क्रांतिकारी विचारों की सुगंध हमारे इस मनोहर देश के वातावरण में व्याप्त हो जाएगी। वह नौजवानों को मदहोश करेगी और वे आजादी और क्रांति के लिए पागल हो उठेंगे। नौजवानों का यह पागलपन ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को विनाश के कगार पर पहुंचा देगा। यह मेरा दृढ़ विश्वास है। मैं बेसब्री के साथ उस दिन का इंतजार कर रहा हूं, जब मुझे देश के लिए मेरी सेवाओं और जनता के लिए मेरे प्रेम का सर्वोच्च पुरस्कार मिलेगा।'
भगत सिंह की भविष्यवाणी एक साल के अंदर ही सच साबित हुई। उनका नाम मौत को चुनौती देनेवाले साहस, बलिदान, देशभक्ति और संकल्पशीलता का प्रतीक बन गया। समाजवादी समाज की स्थापना का उनका सपना शिक्षित युवकों का सपना बन गया। ‘इंकलाब जिंदाबाद' का उनका नारा समूचे राष्ट्र का युद्धनाद हो गया। साल 1930-32 में जनता एक होकर उठ खड़ी हुई। कारागार, कोड़े और लाठियों के प्रहार उसके मनोबल को तोड़ नहीं सके। यही भावना, इससे भी ऊंचे स्तर पर, 'भारत छोड़ो' आंदोलन के दौरान दिखाई दी थी। पूरा राष्ट्र पागल हो उठा था।। फिर आया 1945-46 का दौर, जब विश्व ने सर्वथा एक नए भारत को करवटें बदलते देखा। मजदूर, किसान, छात्र, नवयुवक, नौसेना, थलसेना, वायुसेना और पुलिस तक-सब कड़ा प्रहार करने के लिए आतुर थे। निष्क्रिय प्रतिरोध की जगह सक्रिय जवाबी हमले ने ले ली। बलिदान और यातनाओं को सहन करने की जो भावना 1930-31 तक थोड़े-से नौजवानों तक सीमित थी, अब समूची जनता में दिखाई दे रही थी। विद्रोह की भावना ने पूरे राष्ट्र को अपनी गिरफ्त में जकड़ लिया था। भगत सिंह ने ठीक ही तो कहा था, 'भावना कभी नहीं मरती।' और उस समय भी वह मरी नहीं थी ।
- शिव वर्मा
(भगत सिंह के साथी)
('भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज' से साभार)
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